Saturday 24 December 2022

हमारा चिंतन ही हमारी वास्तविकता है

 5 मूल्यवान पाठ जो जेम्स एलेन की पुस्तक, “As a Man Thinketh” सिखाती है:-

1) आपका चिंतन ही आपकी वास्तविकता गढ़ता है

आप वही हैं जो आप सोचते हैं या आपने कभी सोचा है.......अगर आप अपने आपको बदलना चाहते हैं तो उसकी शुरुआत अपने विचारों को बदलने से होगी....आदमी के क्रियाकलाप उसके विचारों के बीजों से पैदा होते हैं....सही विचारों का चुनाव और क्रियान्वयन आदमी को दिव्यता (Divinity) की ओर बढ़ाता है, जबकि गलत विचारों का चुनाव और क्रियान्वयन आदमी को पशुओं के स्तर से भी नीचे गिरा सकता है; शुभ विचारों और क्रियाकलापों का परिणाम कभी अशुभ नहीं हो सकता; अशुभ विचार और क्रियाकलाप कभी अच्छे परिणाम नहीं ला सकते|

2) आपका मन एक बगीचे की तरह है

लेखक ने हमारे मन की तुलना बगीचे से की है| हम अपने मन को अपनी समझदारी से एक बगीचा बना सकते हैं अथवा उसे एक जंगल बनने के लिए छोड़ सकते हैं| यदि हम अपने बगीचे में सुन्दर फूलों के बीज नहीं बोएंगे तो उसमें अनुपयोगी घासफूस (Weeds) स्वतः ही उग आएगी|

जिस तरह एक माली बगीचे से निरर्थक पौधों को हटाता रहता है, उसी प्रकार हर आदमी का दायित्व है कि वह अच्छे बीज बोने और उनकी देखभाल करने के साथ-साथ अपने मन की बगिया को अनावश्यक विचारों की घासफूस से भी मुक्त करता रहे| इससे जीवन अत्यंत सुन्दर और रोचक बन जाता है| लेकिन जब लोग इसकी विपरीत दिशा में चलते हैं, और मन में पैदा हुए असंगत एवं निरर्थक विचारों को पोषण देते हैं तो उनका जीवन जटिल होता चला जाता है|

3) विचार मानसिक रूप से ही नहीं अपितु शारीरिक रूप से भी प्रभावित करते हैं

आप क्या सोचते हैं और कैसे सोचते हैं – इसका न केवल आपके मानसिक स्तर पर अपितु शारीरिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है| शरीर आपके मन का सेवक है, और यह आपके मन के हर एक आदेश का पालन करता है, चाहे वह जान-बूझकर चुना गया हो या स्वचालित ढंग से अभिव्यक्त हुआ हो| लेखक तर्क देते हैं कि जब आदमी लगातार बीमारी के डर में जीता है, वह वास्तव में रोगी बन जाता है| इसलिए रोगी होना केवल शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक अवस्था भी है| चिंतन-प्रक्रिया मदद नहीं मिल सकती| विचार हमारी आयु को प्रभावित करते हैं| अगर आप एक क्षण के लिए रूक कर अपने आसपास के लोगों का अवलोकन करें, तो आपको उम्र के नौवें दशक (Nineties) में भी चेहरों पर चमक और मुस्कान लिए हुए लोग देखने को मिल सकते हैं| वहीं आपको ऐसे भी लोग भी मिलेंगे जिनके चेहरों पर उम्र के तीसरे दशक (Thirties) में ही अव्यवस्थित रेखाएं खिंची रहती हैं|

4) आपके हालात ने आपको नहीं गढ़ा है

अगर आप यह मानते हैं कि आप जीवन में कुछ इसलिए हासिल नहीं कर सकते कि आप एक अलग पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखते हैं या आपका वातावरण आपके अनुकूल नहीं है, तो मित्रवर, आप गलती पर हैं| परिस्थितियों ने आपको आकार नहीं दिया है अपितु आपके बाहरी वातावरण ने आपके विचारों की आतंरिक दुनिया का रुप धारण कर लिया है| परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, उन पर किस प्रकार प्रतिक्रिया देनी है – आप उसके लिए हमेशा स्वतंत्र हैं; और, सबसे उपयुक्त प्रतिक्रिया यह है कि अपने आपको उन बातों पर केन्द्रित (Focus) करें जिन पर आपका नियंत्रण है| जब आप खुद को उस जगह पर केन्द्रित करते हैं, और वहां सुधार करते हैं जहां पर आपका नियंत्रण है तो आप जीवन में विजयी होते हैं| चूंकि लोग अधिकतर परिस्थितियों में सुधार के लिए व्याकुल रहते हैं परन्तु अपने आप को बदलने में उनकी कोई रूचि होती, इसलिए वह परिस्थितियों के बंधन में पड़े रहते हैं|

5) कार्यकलाप और चिंतन एक साथ होने चाहिए

विचारों के सम्बन्ध में अनेक स्वावलंबन गुरुओं (Self-help Gurus) द्वारा उपदेश किया जाता है कि आपको वही उपलब्ध होगा जैसा कि आप सोचते हैं और जिस पर विश्वास करते हैं| इसी को आकर्षण के नियम के रूप में प्रस्तुत किया गया है और बहुत से लोगों ने इसे ग्रहण किया है|

जेम्स एलेन, जिन्हें स्वावलंबन अभियान (Self-help Movement) का अग्रदूत माना जाता है, का स्पष्ट मत है कि केवल विचारों का होना पर्याप्त नहीं है| विचार केवल प्रारंभ-बिंदु होते हैं; और, अगर आप सही क्रियाओं को अपने चिंतन के साथ सुसंगत (Harmonize) नहीं करते, तो आपको वह उपलब्धि नहीं मिल सकती जो आप पाना चाहते हैं| केवल मनोरथ पालने और उपलब्धियां मिलने की प्रतीक्षा करते रहने से आपको कोई सहयोग नहीं मिलेगा| आपको आगे आना होगा, गतिविधियाँ (Activities) करनी होंगी और आप जो कुछ पाना चाहते हैं उसे अर्जित करना होगा|

Tuesday 11 January 2022

स्वामी विवेकानंद – युवाओं के प्रेरणा-स्रोत के रूप में

 स्वामी विवेकानंद – युवाओं के प्रेरणा-स्रोत के रूप में

स्वामीजी ने किशोरों और युवाओं (नई पीढ़ी) को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया है; उनका कहना था:

*              नौजवान आशावादी होते हैं, और वृद्ध निराशावादी|

*          तरुण के सामने अभी उसका सारा जीवन पड़ा है; जबकि वृद्ध को सदा शिकायत रहती है कि उसका समय निकल गया|

*              सबसे पहले हमारे नवयुवकों को बलशाली होना चाहिए|

*          “साहसी और निष्कपट बनो; उसके बाद जिस मार्ग पर चाहो, अपनी इच्छानुसार भक्तिपूर्वक अग्रसर होओ; निश्चित ही उस पूर्ण वस्तु को प्राप्त करने में सफल होओगे|”

*              तब तक शिक्षा ग्रहण करो जब तक तुम्हारा मुख ब्रह्मविद् के समान दिव्य भाव से चमक नहीं उठता|”

*              “Youth of India arise.  Brave, bold men, these are what we want. What we want is vigour in the blood, strength in the nerves, iron muscles and nerves of steel…”                            

(III. 278-279)

*              “Arise, awake, for your country needs this tremendous sacrifice. It is the young men that will do it. ‘The young, the energetic, the strong, the well-built, the intellectual’ – for them is the task.”

(III. 318)

*              “Do not be frightened. Awake, be up and doing. Do not stop till you have reached the goal.”

(II. 140)

*              “My children must be ready to jump into fire, if needed, to accomplish their work. Now work, work, work! We will stop and compare notes later on. Have patience, perseverance and purity.”

(V.61)

*              “India wants sacrifice of at least a thousand of her young men – men, mind and not brutes.”

(V.10)

*              “My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. They will work out the whole problem, like lions.”             

                                                                                    (V. 223)

*              “My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, क्षात्र-वीर्य+ब्रह्म-तेज.”         

(V. 117)

*              “Work unto death – I am with you, and when I am gone, my spirit will work for you. This life comes and goes – wealth, fame, enjoyments are only of a few days. It is better, for better to die on the field of duty, preaching the truth, than to die like a worldly worm.”     

(V. 114-115)

*              “Truth, purity, and unselfishness – wherever these are present, there is no power below or above the sun to crush the possessor thereof. Equipped with these, one individual is able to face the whole universe in opposition.”                                                                           

(IV. 279)

*              “Lay down your comforts, your pleasures, your names, fame or positions, nay, even your lives and make a bridge of human chains over which millions will cross the ocean of live.”      

(IV. 352)

स्वामी विवेकानंद - भारतीय संस्कृति के महान प्रचारक के रूप में

भारतीय संस्कृति के महान प्रचारक के रूप में स्वामी विवेकानंद के उद्गार

वेदांत:    स्वामीजी का उद्देश्य था – वेदांत को पुराने तर्क-वितर्क से निकालकर बोधगम्य और व्यावहारिक बनाना, और योग को जटिल शारीरिक क्रियाओं से निकालना तथा उसे वैज्ञानिक एवम् मनोवैज्ञानिक रूप देना| उन्होंने वेदांत को सन्यासियों तक सीमित नहीं रखा, वरन् सर्वत्र उसका प्रचार किया; उन्होंनें वेदांत को श्रेष्ठ माना, क्योंकि यह दर्शन (1) विशेष (Particular) को सामान्य (Universal) के द्वारा समझने का प्रयास करता है (2) एकता या सामंजस्य को अपना लक्ष्य मानता है (3) व्यक्तियों पर नहीं, बल्कि सिद्धांतों पर आधारित है; वेदांत मात्र इकाई का सिद्धांत नहीं है, वह भेद में अभेद की शिक्षा देता है; वेदांत बताता है कि भिन्न दिखाई पड़ने वाले रूपों के पीछे एक ही सत्ता है; जैसे जल ही कभी वर्फ के रूप में, कभी द्रव के रूप में, और कभी भाप के रूप में दीख पड़ता है, उसी प्रकार एक ब्रह्म का ही ईश्वर, जीव और प्रकृति के रूप में अनुभव होता है| योगियों की गुप्त क्रियाओं और थियोसोफिस्टों के रहस्यवाद से वह चमत्कृत नहीं हुए; योग में उन्होंनें ज्ञानयोग को सर्वश्रेष्ठ माना और कहा कि “यदि धर्म बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो वह धर्म नहीं अंधविश्वास है|” उन्नीसवीं सदी के अन्य विचारकों की तरह स्वामी विवेकानंद को भी साइंस पर बड़ी श्रद्धा थी; उनका कहना था कि “धर्म साइंस है और साइंस धर्म है|”

कर्म:    विवेकानंद का मुख्य सन्देश है – कर्मठता; हिन्दू जाति में सदियों की राजनैतिक दासता के कारण आई भाग्यवादिता, निराशा और कायरता को स्वामीजी ने ललकारा और उपनिषदों के शब्दों में सन्देश दिया कि “उत्तिष्ठत, जाग्रथ, प्राप्य वरान्निबोधत|” (अर्थात् ‘उठो, जागो, और जब तक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक रुको मत’); उनके प्रतिनिधि विचार इस प्रकार से थे:-

बल:  (१) ‘अपने पैरों पर खड़े होओ और मनुष्य बनो|’

    (२) 'सबसे पहले हमारे नवयुवकों को बली होना चाहिए; धर्म बाद में आएगा; तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबॉल के माध्यम से स्वर्ग के अधिक समीप पहुंचोगे|’

     (३) ‘योग, यज्ञ, प्रणाम-दण्डवत, और जप-जाप आदि धर्म नहीं हैं; व वहीं तक अच्छे हैं, जहाँ तक इनसे सुन्दर और वीरतापूर्ण कार्य करने की प्रेरणा मिलती है|’

पाप: ‘वेदान्त ‘पाप’ की बात नहीं मानता; वह केवल भूल की बात स्वीकार करता है और उसके अनुसार तुम सबसे बड़ी भूल तब करते हो, जब तुम कहते हो, “मैं कमज़ोर हूँ”, “मैं पापी हूँ”, “मैं असहाय हूँ” आदि|’

सेवा: ‘दरिद्र, पीड़ित और आत्तों में शिव की पूजा करो|’

    ‘गंगातीर पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? क्या ये गरीब, दुखी और दुर्बल भगवान् नहीं हैं? इनकी पूजा क्यों नहीं करते?’

त्याग:  ‘महान कार्य महान त्याग से ही संपन्न होंगे.... इस जगत् की सृष्टि करने के लिए स्वयं विराट् पुरुष भगवान् को भी अपनी बलि देनी पड़ी; त्याग के बिना कोई भी पूरे ह्रदय से दूसरों के लिए कार्य नहीं कर सकता|’

धर्म: ‘धर्म का अर्थ है – ह्रदय के अन्तर्तम प्रदेश में सत्य की उपलब्धि; धर्म का अर्थ है – ईश्वर का संस्पर्श प्राप्त करना, इस तत्व की प्रतीति करना – उपलब्धि करना कि मैं आत्म-स्वरुप हूँ, और अनंत परमात्मा से मेरा युग-युग का अछेद्य सम्बन्ध है|”

भारतवर्ष के सम्बन्ध में: “यदि मनुष्य जाति के सारे इतिहास को देखें तो पायेंगे कि सारे संसार में भारत ही एक ऐसा देश है, जो अपनी सीमाओं के बाहर किसी दूसरे देश को परास्त करने नहीं निकला; जिसने दूसरे की संपत्ति को हथियाने की इच्छा नहीं की; उसने अपने हाथों कड़ी मेहनत करके धन एकत्र किया और दूसरे राष्ट्रों को प्रलोभन दिया कि वे आकर यहाँ लूट-मार करें|”

     “भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता; यह उस समय तक टिका रहेगा जब तक इसका धर्मभाव अक्षुण्ण रहेगा; जब तक राष्ट्र के लोग अपने धर्म का पूर्ण त्याग नहीं कर देंगे; पश्चिम में कोई साधारण मनुष्य अपना वंश किसी मध्यकालीन आततायी ‘बैरन’ से जोड़ने का यत्न करता है, जबकि भारत में एक सिंहासनरूढ़ सम्राट भी किसी अरण्यवासी, वल्कल्धारी, कंदमूल-फल खाने और ईश्वर से साक्षात्कार करने वाले ऋषि से अपनी वंश-परम्परा स्थापित करने का प्रयास करता है; और जब तक पवित्रता के ऊपर हमारी इस प्रकार गंभीर श्रद्धा रहेगी, तब तक भारत का विनाश नहीं होगा|”

Friday 25 January 2019

व्यक्तित्व, सफलता और प्रसन्नता

व्यक्तित्व, सफलता और प्रसन्नता


हमारे व्यक्तित्व के चार आयाम (अंग या विभाग) हैं:-

  • शारीरिक (बाह्य) व्यक्तित्व (Physiological-Self)
  • बौद्धिक व मानसिक व्यक्तित्व (Intellectual & Psychological-Self)
  • भावनात्मक व्यक्तित्व और ऊर्जा (Emotional-Self, Energy-Self)
  • आध्यात्मिक व्यक्तित्व (Spiritual-Self)

हमारे जीवन में सफलता, समृद्धि एवं प्रसन्नता लाने में हमारे व्यक्तित्व के इन चारों अंगों का अपना-अपना (क्रमशः 10%, 20%, 30% तथा 40%) अंशदान होता है| इनके योग से ही सम्पूर्ण (100%) व्यक्तित्व बनता है|

हमको प्रतिदिन कुछ नए अनुभव मिलते हैं| हमारा प्रत्येक अनुभव, चाहे सुखद हो, कटुतापूर्ण हो या दुखदायक हो, हमें कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य देकर जाता है| स्वयं के अनुभवों से मिली हुई शिक्षा सबसे अधिक मूल्यवान होती है, और वही हमारे वास्तविक व्यक्तित्व का निर्माण व विकास करती है|अनुभव और उससे प्राप्त शिक्षा हमारे आचरण, चिंतन, निर्णय एवं कार्यव्यवहार में परिवर्तन लाती है| परिवर्तन सकारात्मक व नकारात्मक - दोनों प्रकार के होते हैं| प्रत्येक परिवर्तन से नई परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, तथा हमें अपने अनुभव व ज्ञान से उन परिस्थितियों को समझने, उनसे निबटने, उचित निर्णय लेने या सही विकल्प चुनने की समझ व क्षमता प्राप्त होती है| 

हम जब कोई निर्णय लेते हैं अथवा कोई विकल्प चुनते हैं तो परिणाम के रूप में दो प्रकार की स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जिन्हें सफलता-विफलता, विजय-पराजय, हानि-लाभ या उपलब्धि-विध्वंश आदि कहा जाता है| जहां सफलता, विजय, उपलब्धि या लाभ की प्राप्ति होने पर हमें सम्पन्नता, उत्साह एवं आनन्द की अनुभूति होती है, वहीं इनके विपरीत या अनपेक्षित परिणाम आने पर हमारे मन में दुःख, अवसाद, विपन्नता या निराशा का भाव उत्पन्न होता है|

व्यक्तित्व के पहले दो विभागों के अंशदान का योग 30% है| यदि किसी के व्यक्तित्व के भावनात्मक एवं आध्यात्मिक पक्ष विकसित न हुए हों तो उसे अधिकतम 30% सफलता मिल सकेगी| अतएव, यदि कोई 100% सफलता व प्रसन्नता अर्जित करना चाहता है तो उसे अपने व्यक्तित्व को 100% के स्तर तक विकसित करना होगा - मानसिक दृढ़ता, भावनात्मक स्थिरता एवं आध्यात्मिक शक्तियों के योगदान के बिना 100% सफलता व प्रसन्नता मिलना असंभव है|

अपने व्यक्तित्व के चारों अंगों को (100% के स्तर तक) विकसित करने में सफल हो चुका व्यक्ति सदैव...

  • शांत (Calm), स्थिर (Stable) व अनुशासित (Disciplined) रहता है,
  • अपने ध्यान की इकाइयों (Attention Units) को बिखरने से रोकने तथा उन्हें अपने लक्ष्य पर केन्द्रित (Focused) करने में सक्षम होता है,
  • अपने निर्णय-कौशल (Decision-Making Ability) में कुशाग्रता, निश्चयात्मकता व स्पष्टता (Efficiency, Effectiveness & Clarity) बनाए रखता है,
  • अपने संवाद-कौशल एवं संबंधों की गुणवत्ता (Quality In Communication & Relationship) बनाने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है,
  • देश-काल-परिस्थिति तथा अपने लक्ष्य के अनुरूप उपयोगी एवं सहायक शक्तियों को सहजता से अपनी ओर आकर्षित कर लेता है|


आध्यात्मिक प्रगति मानव जीवन की सबसे सुन्दर अवधारणा (Concept) है, जो कि मनुष्य की चेतना की स्थिति पर आधारित होती है| मानव जीवन विचारों की ऊर्जा से संचालित होता है| भोजन से हमारी शारीरिक स्थिति ही नहीं अपितु चिंतन प्रक्रिया भी प्रभावित होती है, और चिंतन प्रक्रिया का हमारी शारीरिक स्थिति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है| इसी से हमारा जीवन संचालित होता है|

दैनिक जीवन के अनुभव हमारी चिंतन शक्ति को प्रभावित करते हैं| जिस प्रकार हम अपने शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आहार की शुद्धता और पौष्टिकता के साथ-साथ नियमित स्वच्छता का ध्यान रखते हैं, उसी प्रकार विचारों की शुद्धता व पौष्टिकता के सम्बन्ध में सजग रहते हुए अपने मानसिक व  शारीरिक, दोनों प्रकार के स्वास्थ्य को उत्तम बनाया जा सकता है| इसके लिए मन को निरंतर स्वस्थ पोषण (Feed of Healthy Thoughts) देना तथा साथ-साथ नियमित सफाई (Cleaning) अर्थात् चित्त-शुद्धि (Purification of Conscience) का होना आवश्यक है| इससे हमारे भीतर मानसिक दृढ़ता (Psychological/Mental Strength) आती है और अपने मनोभावों को संतुलित (Emotional Balancing) करने तथा आवेगों का नियमन (Regulation of Impulses) करने में सहजता व सुगमता रहती है|

आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न (Spiritually Grown-up) व्यक्ति अपनी एकाग्रता की शक्ति (Concentration Power) के कारण जीवन में सर्वाधिक सफलता व प्रसन्नता अर्जित करता है| ऐसे व्यक्ति के लिए आतंरिक द्वंद्व (Internal Conflict), द्वैध मन (Dual Mind), विवेकहीनता (Lack of Understanding), ऊर्जा का ह्रास (Lowering of Energy) आदि विभिन्न प्रकार की मनोवैज्ञानिक अक्षमताओं (Psychological Weaknesses) से निबटना अत्यंत सुगम होता है|

-- देवेन्द्र कोटलिया (हल्द्वानी/नैनीताल, उत्तराखंड), 26 जनवरी, 2019.

Monday 27 August 2018

रक्षाबंधन : बंधन है या संकल्प है?

रक्षाबंधन के पर्व पर एक विशेष मंथन:
क्या रक्षाबंधन का पर्व केवल दो लोगों के परस्पर बंधन का द्योतक अथवा एक-दूसरे की रक्षा के लिए दिया जाने वाला सांकेतिक वचन है?
अथवा, क्या इसे समस्त मानव जाति के अस्तित्व की रक्षार्थ एक संकल्प के रूप में देखा जाना चाहिए?
इस विचार को तर्कपूर्ण, व्यापक एवं तथ्यात्मक ढंग से समझना होगा|
किसी एक के द्वारा दूसरे की रक्षा करने का वचन देने के विचार को महत्व देने के कारण इस त्यौहार का पूरा महात्म्य समाप्त हो जाता है| स्त्रीजाति के द्वारा पुरुषजाति के हाथों में राखी बाँधना और पुरुषजाति के द्वारा स्त्रीजाति को उपहार दिया जाना एक प्रकार का वचन है, जो दोनों ओर से दिया जाता है| परन्तु इसमें किसी एक के द्वारा दूसरे की रक्षा किए जाने के विचार को मान्यता दिए जाने के कारण ही दोनों में से एक को दूसरे की तुलना में कम या ज्यादा बलशाली होने का भ्रामक विचार अप्रत्यक्ष रूप से समाहित रहता है| इसके अतिरिक्त कई अन्य प्रकार की तर्कहीन बातों, घटनाओं अथवा काल्पनिक कथाओं को आधार बनाकर कहीं पर स्त्री को और कहीं पर पुरुष को अधिक शक्तिशाली सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा है, ऐसे प्रयासों से केवल भ्रामक ही नहीं बल्कि विघटनकारी स्थितियां उत्पन्न हुई हैं|
मनुष्य द्वारा प्रतिपादित की गई सभी अवधारणाओं, नियमों व सिद्धांतों से प्रकृति के नियम सर्वदा ऊपर हैं और सदैव ऊपर रहेंगे| चालीस हज़ार वर्ष पहले पृथ्वी पर घटित हुए घटनाक्रम से यह बात प्रमाणित हुई है अथवा मनुष्य ने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि सृष्टि की व्यवस्था में मानव का स्थान अन्य प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ है| लेकिन इससे न तो इस बात की पुष्टि होती है कि सृष्टि के पूर्वार्द्ध में भी ऐसा रहा हो और न ही उत्तरार्द्ध में इस स्थिति के बने रहने की कोई गारंटी मिलती है| ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्रकृति के द्वारा स्त्री और पुरुष शरीरों की संरचना करने के पीछे यह प्रयोजन हो कि इनमें से एक को कम और दूसरे को अधिक बलशाली समझा जाएगा| यह केवल मनुष्य द्वारा की गई भ्रांत एवं त्रुटिपूर्ण व्याख्याओं और परिभाषाओं का प्रतिफल है|
शारीरिक व मानसिक क्षमता को आधार बनाकर नारी और पुरुष की सामर्थ्य में तुलना करना एक महान भूल है| सत्यता यह है कि सृष्टि की व्यवस्था में स्त्री और पुरुष, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| दोनों का पूरक होना मानवीय प्रजाति की उत्तरजीविता के लिए अनिवार्य ही नहीं अपितु अपरिहार्य है| दुर्भाग्य की बात तो यह है कि सृष्टि की व्यवस्था में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर स्थापित करने अथवा ऐसा मानने वाली मानवजाति समाज में स्वयं के द्वारा फैलाई गई तर्कहीन अवधारणाओं, पौराणिक कथाओं और उनकी मूर्खतापूर्ण व्याख्याओं में उलझकर स्वयं अपने अस्तित्व को संकट में डालने पर तुली हुई है|
अतः रक्षाबंधन के पर्व पर स्त्री और पुरुष, दोनों के द्वारा सम्पूर्ण मानव जाति की रक्षा करने का उद्देश्य सामने रखकर अनंत काल तक दूसरे की रक्षा करने का संकल्प लिया जाना अत्यंत शुभ होगा| इसी से रक्षाबंधन के पर्व के माहात्म्य और गौरव में वृद्धि होगी| यह संकल्प केवल राखी बाँधने वाली कन्या अथवा स्त्री की ओर से ही नहीं बल्कि जिसके हाथों में वह बांधी जाती है, उसकी ओर से भी लिया जाना चाहिए|
सभी मित्रों, बंधुओं एवं विचारशील सज्जनों को सपरिवार रक्षाबंधन के पर्व की अनेकानेक शुभकामनाएं!

क्या मनुष्य पशुता से पूर्णतः मुक्त हो चुका है?

ईश्वर की सृष्टि में मानवजाति शीर्ष पर है, और वही परम है
परन्तु प्रत्येक को अपना मानव होना स्वयं ही सिद्ध करना है
मानव अपनी बनाई हुई हर प्रकार की व्यवस्था से ऊपर है
अर्थात् वह समाज, वर्ण-व्यवस्था, जाति-उपजाति, पंथ-सम्प्रदाय, राज्य व सत्ता से भी ऊपर है
जीवनधारा शीर्ष से नीचे की ओर प्रवाहित हो रही है
अतः मानव सिद्ध होने के बाद आपके लिए एक संतान, नागरिक, पड़ोसी, मित्र-शत्रु, गुरु-शिष्य, शिक्षक-शिक्षार्थी, पति-पत्नी, माता-पिता, सेवक-स्वामी, व्यापारी-ग्राहक, चिकित्सक-रोगी, इंजीनियर, वकील, लेखक, वैज्ञानिक सिद्ध होना अत्यंत सुगम हो जाएगा|
परन्तु अधिकांश लोगों की यात्रा विपरीत दिशा में चल रही है| स्वयं को मानव सिद्ध किए बगैर वे स्वयं के द्वारा गढ़े गए विभिन्न पदों और स्थितियों पर आसीन हो जाते हैं और अपनी मानवता को ही भूल जाते हैं| चूंकि इनकी यात्रा श्रेष्ठता से निम्नता की ओर है इसीलिए धीरे-धीरे पशुता की ओर अग्रसर हो रहे हैं|
पशुता क्या है?
किसी प्राणी के पशु होने का प्रमाण केवल यही नहीं है कि उसके पास चार पैर हों, एक पूँछ हो, बड़े-बड़े दांत हों, सिर पर सींग हों, चीख कर या मौन संकेतों के माध्यम से संवाद करता हो| इन सबके अतिरिक्त भी कई प्रकार के सूचक हैं: झुण्ड (समूह) बनाकर रहना, समूह की शक्ति को आधार बनाकर दूसरों का शोषण करना, छीनना-झपटना, लोभ व लालच करना, सामग्री का अनावश्यक संग्रह करना, भय अथवा क्रोध के कारण दूसरों को क्षति पहुंचाना, अज्ञानता अथवा क्रोध के वश में स्वयं को क्षतिग्रस्त करना, अपने से शक्तिहीन प्राणियों पर अत्याचार करना, किसी की क्रिया के समतुल्य प्रतिक्रिया करना, दूसरों का अन्धानुकरण करना, संवेगी पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहना तथा अनेक प्रकार के यंत्रचालित व संवेगात्मक (Instinctive) कृत्य करना  – इत्यादि विभिन्न प्रकार की पशुवत् क्रियाएं हैं|
यह बात प्रमाणित है कि (मनुष्य के द्वारा प्रशिक्षित किए गए अथवा उसका अनुकरण करने वाले प्राणियों को छोड़कर) पशुओं ने निश्चित रूप से मनुष्य से अपना आचरण नहीं सीखा है| तो क्या मनुष्य ने इस प्रकार का आचरण पशुओं से सीख लिया है? वैसे भी दूसरों के आचरण को अपने जीवन में उतारने या उनका अनुगमन करने की प्रवृत्ति और योग्यता तो केवल मनुष्य में ही विद्यमान है| ऐसा प्रतीत होता है कि या तो मनुष्य अभी तक पशुवत् (स्वभावजनित) आचरण से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है अथवा उसने अपने आदि (नैसर्गिक) स्वभाव को पुनः ग्रहण कर लिया है और उसके अनुसार आचरण करने लगा है|
मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग व श्रेष्ठ सिद्ध करने वाले प्रमुख लक्षण हैं: उसकी कल्पना शक्ति तथा तर्क की सहायता से अपनी कल्पनाओं को प्रमाणित करने की योग्यता|
मनुष्यता का अति महत्वपूर्ण लक्षण है: अपने वर्तमान स्वरुप से ऊपर उठने तथा उन्नत स्वरुप में अभिव्यक्त होने की प्रवृत्ति, उत्कंठा एवं क्षमता
चिन्तन करने योग्य बात यह है कि यदि कोई मनुष्य इन अद्वितीय एवं श्रेष्ठ गुणों के होते हुए भी निरंतर स्वयं से निम्नतर योनियों के समतुल्य आचरण करता रहे और वैसा ही स्वभाव रखता हो तो उसे पशु से भिन्न कैसे माना जा सकता है?

Friday 30 March 2018

कोई तो बाँधे बिल्ली के गले में घंटी


कोई तो बाँधे बिल्ली के गले में घंटी
हम बचपन से चूहों और बिल्ली के बीच संघर्ष की कहानी सुनते-सुनाते चले आ रहे हैं| यह कहानी युग-युगान्तर से इसी प्रकार चलती चली आ रही है... बिल्ली के आतंक से त्रस्त चूहे और मुक्त होने की उनकी छटपटाहट; किसी गुप्त स्थान पर इकट्ठे होकर समस्या-समाधान पर चिंतन-मंथन और तर्क-वितर्क; देश-काल-परिस्थितियाँ अलग-अलग, लेकिन समाधान वही एक, “बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाए”; दुनिया देखते-देखते बूढ़े और निराश हो चुके चूहों का बगलें झांकना, एक दूसरे का मुंह ताकना और गर्दन नीची किये हुए एक-एक करके बैठक से खिसक जाना; कभी-कभी किसी युवा चूहे द्वारा कुछ करने का साहस दिखाने पर रूढ़िवादी सोच वाले चूहों द्वारा अपनी निराशा-भरी बातों से उसके मनोबल को नीचे पटक देना; अंत में बैठक का विसर्जन - बगैर कोई संकल्प लिए, बिना कोई कार्ययोजना बनाए|
परन्तु हर कहानी में कभी न कभी एक मोड़ आता है जब कहानी के पात्र अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकलकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं| बिल्ली और चूहों की इस कहानी में ऐसा ही मोड़ उस दिन आया जब चूहों की बैठक फिर से अनिर्णय की स्थिति में पहुँचकर लगभग विसर्जित होने को थी, लेकिन तभी पीछे बैठकर बूढ़े चूहों की निराशाजनक बातें सुन रहा एक युवा चूहा बीच में कूदकर बोला, “मैं लेता हूँ ज़िम्मा, बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का|” बैठक में सन्नाटा पसर गया|
बूढ़े चूहों ने बड़ी हैरानी से उस युवा चूहे की ओर देखा
; उन्ही में से एक ने हँसते हुए उलाहना दिया, “जवानी का जोश है, इसलिए हवा में उड़ रहा है, वरना जो काम सदियों से कोई नहीं कर पाया, उसे ये कल का बच्चा करेगा!इस पर सबने ठहाका लगाया, मानों उनके ठहाके से ही बिल्ली के आतंक से मुक्ति मिलने वाली हो| लेकिन वह युवा चूहा मन में कुछ कर दिखाने का संकल्प लेकर अपने एक साथी चूहे के साथ तेज़ी से वहाँ से निकल गया| उन दोनों ने बाहर की दुनिया देखी थी| एक केमिस्ट की दुकान पर उनका आना-जाना था, रात होने पर दोनों सीधे वहाँ पहुँचे और एक डिब्बे में से नींद की गोलियों का एक पत्ता निकालकर ले आए; उन्होनें कुछ गोलियां निकालकर बिल्ली के पीने के लिए रखे हुए दूध में डाल दीं| उस दूध को पीते ही बिल्ली को नींद आ गयी| सदियों से जिस घंटी को बूढ़े चूहों ने सहेजकर रखा था, उसे आज दो युवा चूहों ने मिलकर बिल्ली के गले में बाँध दिया|
यह कहानी हम मनुष्यों की ज़िन्दगी से बहुत मेल खाती है... समाज की चिंताजनक स्थिति और रूढ़िवादी ढर्रे पर चलने वाली चर्चाएं; किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना बैठक का विसर्जित हो जाना अथवा निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद एक ठोस योजना तैयार न कर पाना; यदि योजना बन जाए, तो उसकी जिम्मेदारी उठाने वाले कन्धों का अभाव; अगर कोई उठकर साहस दिखाए तो उसकी राह में रूढ़िवादी सोच व निराशाजनक अनुभवों के कांटे बिखेर दिया जाना| अब समय आ गया है कि मनुष्यों की कहानी में भी एक मोड़ आना चाहिए ताकि इस थकी हुई निराश मानसिकता पर विराम लगाते हुए कोई गौतम, नानक, विवेकानंद, दयानंद, भगतसिंह, शिवाजी, लक्ष्मीबाई, आज़ाद, सुभाष सरीखा उठकर खड़ा हो और कहे, “मैं लेता हूँ जिम्मेदारी!